उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गाँव ‘मिट्टीपुर’ में एक युवक रघु रहता था। मिट्टीपुर गाँव अपने नाम के अनुरूप एक साधारण और शांतिपूर्ण गाँव था, जहाँ लोग मिल-जुलकर रहते थे। परंतु जैसे-जैसे समय बीत रहा था, गाँव की सांस्कृतिक धरोहर भी धीरे-धीरे धूमिल होती जा रही थी। सबसे बड़ा नुकसान था गाँव की भाषा का। मिट्टीपुर में हिंदी और स्थानीय बोली का बहुत महत्त्व था, लेकिन आधुनिकता की आंधी में लोग अपनी जड़ें भूल रहे थे। युवा पीढ़ी अब अंग्रेजी और बड़े शहरों की भाषा की ओर आकर्षित हो रही थी ।
रघु, जो गाँव का एक होनहार लड़का था, शहर से अपनी पढ़ाई पूरी करके गाँव लौटा था। वह भाषा के प्रति बहुत ही संवेदनशील था और उसे अपने गाँव की भाषा और संस्कृति से बेहद लगाव था। उसने देखा कि अब गाँव के बच्चे, जो पहले अपनी मातृभाषा में गर्व महसूस करते थे, अब वे हिंदी बोलने में हिचकिचाते थे। रघु ने निश्चय किया कि वह अपने गाँव में हिंदी और स्थानीय बोली को पुनः जीवित करेगा।
कथानक (Plot)
रघु ने अपने इस अभियान की शुरुआत गाँव के स्कूल से की। उसने स्कूल के प्रधानाध्यापक से बात की और कहा कि हिंदी और गाँव की बोली को बचाने के लिए हमें कुछ ठोस कदम उठाने होंगे। प्रधानाध्यापक पहले तो संकोच में थे, क्योंकि अब सरकारी स्कूलों में भी अंग्रेजी माध्यम की ओर ज्यादा जोर दिया जा रहा था। लेकिन रघु के तर्कों और दृढ़ निश्चय को देखकर उन्होंने उसे एक अवसर देने का फैसला किया।
रघु ने सबसे पहले गाँव के बच्चों से संवाद करना शुरू किया। वह बच्चों से हिंदी में कहानियाँ सुनाता और खेल-खेल में उन्हें उनकी मातृभाषा के महत्त्व को समझाने की कोशिश करता। उसने बच्चों के लिए एक विशेष कार्यक्रम भी शुरू किया, जिसका नाम था ‘अक्षरों की माटी’। इस कार्यक्रम में बच्चे हिंदी और अपनी स्थानीय बोली में कविताएँ, कहानियाँ, और नाटक प्रस्तुत करते। यह न केवल बच्चों के लिए मनोरंजक था, बल्कि उन्होंने अपनी भाषा में गर्व भी महसूस करना शुरू कर दिया।
पात्र (Characters)
कहानी के मुख्य पात्र रघु के अलावा गाँव के कई और पात्र भी थे। रघु का सबसे करीबी मित्र अर्जुन, जो शुरू में रघु के इस प्रयास को बेकार मानता था, धीरे-धीरे उसकी कोशिशों को समझने लगा और उसका साथ देने लगा। गाँव की एक बुजुर्ग महिला, दादी अम्मा, जो हमेशा हिंदी और गाँव की बोली में ही बोलती थीं, रघु के प्रयासों को देखकर बेहद खुश थीं। उन्होंने रघु को आशीर्वाद देते हुए कहा, “बेटा, तूने तो हमें फिर से हमारी जड़ों से जोड़ा है।”
दूसरी ओर, गाँव के प्रधान जी, जो आधुनिकता के पक्षधर थे, रघु के इस कदम से खुश नहीं थे। उन्हें लगता था कि गाँव का विकास अंग्रेजी के बिना संभव नहीं है। रघु और प्रधान जी के बीच अक्सर इस मुद्दे पर बहस होती रहती थी। लेकिन रघु ने हार नहीं मानी, उसे विश्वास था कि वह अपने प्रयासों से गाँव की भाषा और संस्कृति को पुनर्जीवित कर पाएगा।
संघर्ष (Conflict)
रघु का संघर्ष केवल प्रधान जी या अन्य लोगों से ही नहीं था, बल्कि वह समाज की उस मानसिकता से भी लड़ रहा था, जो अपनी भाषा और संस्कृति को पीछे छोड़ने में गर्व महसूस कर रही थी। गाँव के कई लोग, जो शहरों में जाकर बस चुके थे, अब गाँव की भाषा को पिछड़ी मानते थे और अपने बच्चों को अंग्रेजी सिखाने पर जोर देते थे। यह रघु के लिए सबसे बड़ी चुनौती थी।
रघु ने एक दिन गाँव के प्रधान के साथ एक बड़ी सभा बुलाई। उसने प्रधान जी से कहा, “अंग्रेजी सीखने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन अपनी जड़ों को छोड़ना गलत है। अगर हम अपनी भाषा और संस्कृति को नहीं बचा पाए, तो हम अपनी पहचान खो देंगे।” प्रधान जी ने रघु की बातों को सुना, लेकिन फिर भी उन्होंने कहा, “आज के समय में अंग्रेजी के बिना विकास संभव नहीं है।”
इस पर रघु ने गाँव वालों के सामने एक सवाल रखा, “हम अपनी भाषा और संस्कृति को क्यों भूल रहे हैं? क्या विकास केवल अंग्रेजी में ही संभव है? हमारी हिंदी और हमारी बोली ने हमें सदियों तक जोड़ा है, क्या हम इसे यूँ ही खो देंगे?”
भावनात्मक तत्व (Emotional Elements)
रघु की बातें गाँव वालों के दिलों को छू गईं। कई बुजुर्गों की आँखों में आँसू आ गए। उन्होंने महसूस किया कि उनकी पीढ़ी ने अपनी भाषा और संस्कृति को सहेजा था, लेकिन अब यह खोती जा रही है। रघु के प्रयासों को देखकर गाँव के लोग धीरे-धीरे बदलने लगे। बच्चे अब गर्व से हिंदी और अपनी बोली में बात करने लगे। गाँव की महिलाएँ भी अपने बच्चों को हिंदी में कहानियाँ सुनाने लगीं।
रघु के माता-पिता, जो पहले उसके इस प्रयास को व्यर्थ समझते थे, अब गर्व से अपने बेटे की प्रशंसा करते थे। उन्होंने देखा कि कैसे रघु ने गाँव के बच्चों में हिंदी के प्रति प्रेम जगाया है।
परिवेश (Setting)
मिट्टीपुर गाँव की हरी-भरी खेतों और खुले आकाश के बीच यह कहानी चलती रही। गाँव का पुराना स्कूल, जहाँ रघु ने अपने प्रयास शुरू किए थे, अब हिंदी के प्रचार-प्रसार का केंद्र बन चुका था। गाँव की गलियाँ, जहाँ पहले अंग्रेजी के शब्द गूँजते थे, अब फिर से हिंदी और स्थानीय बोली की मिठास से भर गई थीं।
संवाद (Dialogue)
रघु का एक प्रसिद्ध संवाद था, “भाषा केवल शब्दों का संग्रह नहीं है, यह हमारी आत्मा का आईना है। अगर हम अपनी भाषा खो देंगे, तो हम अपनी आत्मा भी खो देंगे।” इस संवाद ने गाँव के लोगों को गहराई से प्रभावित किया।
प्रधान जी ने एक बार रघु से कहा, “तुम्हारे प्रयास अच्छे हैं, लेकिन तुम आधुनिकता से मुँह नहीं मोड़ सकते।” इस पर रघु ने उत्तर दिया, “मैं आधुनिकता से मुँह नहीं मोड़ रहा, मैं बस चाहता हूँ कि हम अपनी जड़ों को न भूलें।”
चरमोत्कर्ष (Climax)
कहानी का चरमोत्कर्ष तब आता है, जब गाँव के बच्चे ‘अक्षरों की माटी’ कार्यक्रम में हिंदी और स्थानीय बोली में अपने-अपने नाटक और कविताएँ प्रस्तुत करते हैं। प्रधान जी, जो इस कार्यक्रम में मुख्य अतिथि थे, बच्चों का प्रदर्शन देखकर आश्चर्यचकित हो जाते हैं। उन्हें समझ आता है कि हिंदी और स्थानीय बोली में भी कितनी शक्ति और गहराई है। कार्यक्रम के बाद प्रधान जी ने मंच पर आकर कहा, “रघु, तुम सही थे। हम अपनी भाषा को नहीं भूल सकते। इसे बचाना ही हमारा कर्तव्य है।”
समापन (Conclusion)
गाँव में हिंदी और स्थानीय बोली का नया दौर शुरू होता है। रघु की कोशिशों ने गाँव को उसकी खोई हुई पहचान वापस दिलाई। बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक, सभी ने फिर से अपनी भाषा में गर्व महसूस करना शुरू कर दिया। रघु ने अपने लक्ष्य को हासिल किया, लेकिन उसकी यात्रा यहीं खत्म नहीं हुई। उसने निर्णय लिया कि वह अन्य गाँवों में भी जाकर हिंदी और स्थानीय बोली के प्रति जागरूकता फैलाएगा।
“अक्षरों की माटी” अब केवल एक कार्यक्रम नहीं, बल्कि एक आंदोलन बन गया था, जो हर गाँव में अपनी भाषा और संस्कृति को सहेजने का संदेश फैला रहा था।
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